Stotraratnam

Sri App

श्रीमते रामानुजाय नमः

स्वादयन्निह सर्वेषां त्रय्यन्तार्थ सुदुर्ग्रहम्।
स्तोत्रयामास योगीन्द्रस्तं वन्दे यामुनाह्वयम्।।

वेदान्त के कठिन अर्थ के ज्ञान का स्वाद सब को चखाने के लिये, जिन्होंने इस स्तोत्ररत्न की रचना की, उन मुनिवर श्री यामुनाचार्य जी की मैं वन्दना करता हूँ।

नमो नमो यामुनाय यामुनाय नमो नमः।
नमो नमो यामुनाय यामुनाय नमो नमः॥

श्री यामुनाचार्य जी को आठ बार प्रणाम है, आठ अंगो से (साष्टांग) प्रणाम है।

नमो यामुनपादाब्जरेणुभिः पावितात्मने।
विदिताखिलवेद्याय गुरवे विदितात्मने।

श्री यामुनाचार्य जी के चरणकमल की रज से पवित्र तथा परमात्मा और आत्मा का यथार्थ ज्ञान रखने वाले उन गुरुवर (श्रीमहापूर्ण) स्वामी जी को प्रणाम है।

नमोऽचिन्त्याद्भुताक्लिष्टज्ञानवैराग्यराशये।
नाथाय मुनयेऽगाधभगवद्भक्तिसिन्धवे॥१॥

अचिन्तनीय, विलक्षण और सुलभ ज्ञान तथा वैराग्य के राशि तथा भगवद् भक्ति के अगाध सागर श्री नाथमुनि स्वामी जी को नमस्कार है। चित्(जीव) अचित् (जड़-प्रकृति), ईश्वर, उनके स्वभाव,

तस्मै नमो मधुजिदंघ्रिसरोजतत्त्व
ज्ञानानुरागमहिमातिशयान्तसीम्ने।
नाथाय नाथमुनयेऽत्र परत्र चापि
नित्यं यदीयचरणौ शरणं मदीयम्॥२॥

श्री मधुसूदन भगवान् के चरणकमल के तत्व, ज्ञान, प्रेम और | अपार महिमा के सीमान्त-मूर्ति स्वामी श्री नाथमुनि को नमस्कार है। उनके दोनों चरण इस लोक और परलोक में भी मेरे लिये सदा आधार

भूयो नमो परिमिताच्युतभक्तितत्त्व
ज्ञानामृताब्धिपरिवाहशुभैर्वचोभिः।
लोकेऽवतीर्णपरमार्थसमग्रभक्ति
योगाय नाथमुनये यमिनां वराय॥३॥

अवतार लेकर अपने सदुपदेशों से जिन्होंने इस संसार में अच्युत भगवान् के भक्ति और तत्वज्ञान के सुधासिन्धु का असीम प्रवाह बहाया, उन समस्त परमार्थ-भक्तियोग रूप व मुनियों में श्रेष्ठ श्री नाथमुनि को पुनः प्रणाम है।

तत्त्वेन यश्चिदचिदीश्वरतत्स्वभाव
भोगापवर्गतदुपायगतीरुदारः।
सन्दर्शयन्निरमिमीत पुराणरत्नं
तस्मै नमो मुनिवराय पराशराय॥४॥

संसार, मोक्ष, मोक्ष पाने के उपाय और गति का तत्व से ज्ञान कराने के लिये जिन उदारमना मुनिश्रेष्ठ श्री पराशर ऋषि ने पुराणों में रत्न श्रीविष्णुपुराण की रचना की, उनको नमस्कार है।।

माता पिता युवतयस्तनया विभूतिः
सर्वं यदेव नियमेन मदन्वयानाम्।
आद्यस्य नः कुलपतेर्वकुलाभिरामं
श्रीमत्तदंघ्रियुगलं प्रणमामि मूर्ध्ना ॥५॥

हमारे श्रीसम्प्रदाय कुल के मूल आचार्य श्री शठकोप स्वामी जी ही होने के नाते वे सदा ही हम वैष्णवों के माता, पिता, स्त्री, पुत्र, धन, सब कुछ हैं। उनके वकुल पुष्प के समान सुन्दर युगल श्री चरणों को मैं शिर से प्रणाम करता हूँ।।

यन्मूर्ध्नि मे श्रुतिशिरस्सु च भाति यस्मिन्
अस्मन्मनोरथपथः सकलः समेति।
स्तोष्यामि नः कुलधनं कुलदैवतं तत्
पादारविन्दमरविन्दविलोचनस्य॥६॥

वेदों के शिर माने जाने वाले उपनिषदों में तथा मेरे मस्तिष्क में भी जो प्रकाशित हैं और हमारे सारे मनोरथों का मार्ग जहाँ जाकर मिल जाता है, उन हमारे कुलधन व कुलदैवत श्री कमलनयन भगवान् के चरणकमलो की मैं स्तुति कर रहा हूँ।।

तत्त्वेन यस्य महिमार्णवशीकराणुः
शक्यो न मातुमपि शर्वपितामहाद्यैः।
कर्तुं तदीयमहिमस्तुतिमुद्यताय
मह्यं नमोऽस्तु कवये निरपत्रपाय।।७॥

शिव-ब्रह्मादि देवता भी जिन भगवान् की महिमा सागर के बिन्दु के एक छोटेसे अंश को यथार्थ रूप से नहीं नाप सकते, उन भगवान् की महिमा का गान करने को उद्यत मुझ निर्लज्ज कवि को नमस्कार है।।

यद्वाश्रमावधि यथामति वाप्यशक्तः
स्तौम्येवमेव खलु तेऽपि सदा स्तुवन्तः।
वेदाश्चतुर्मुखमुखाश्च महार्णवान्त:
को मज्जतोरणुकुलाचलयोर्विशेषः॥८॥

वैसे भी मैं समर्थ नहीं हूँ, तब भी मेरी सीमित शक्ति और सीमित बुद्धि के अनुसार मैं गान कर रहा हूँ। वे वेद और ब्रह्मादि देवगण भी इसी प्रकार ही तो सदा गुणगान करते रहते हैं। महासागर में जब बालुकण भी डूबे और पर्वत भी डूबे, फिर दोनों में अन्तर क्या है?

किञ्चैष शक्त्यतिशयेन नु तेऽनुकम्प्यः
स्तोतापि तु स्तुतिकृतेन परिश्रमेण।
तत्र श्रमस्तु सुलभो मम मन्दबुद्धे-
रित्युद्यमोऽयमुचितो मम चाब्जनेत्र॥९॥

अतिशय शक्ति और परिश्रम से की गयी इस स्तुति से यह दास क्या आप की कृपा के योग्य नहीं बना? हे कमललोचन! मैं मन्दबुद्धि होने से, मैं मेरा यह श्रम सुलभ और मेरा यह उद्योग योग्य मानता हूँ।

नावेक्षसे यदि ततो भुवनान्यमूनि
नालं प्रभो भवितुमेव कुतः प्रवृत्तिः।
एवं निसर्गसुहृदि त्वयि सर्वजन्तोः
स्वामिन्न चित्रमिदमाश्रितवत्सलत्वम्॥१०॥

हे प्रभो! यदि आपका कृपा-कटाक्ष नहीं रहे तो यह त्रिभुवन स्वयं में उत्पन्न होने में असमर्थ है, फिर आगे के सृष्टि- व्यवहार की प्रवृत्ति का तो प्रश्न ही कहाँ है? इस प्रकार सब प्राणियों के आप स्वभाव से ही मित्र होने के नाते हे स्वामिन्! आप में यह आश्रित वत्सलता का गुण आश्चर्यकारक नहीं है।।

स्वाभाविकानवधिकातिशयेशितृत्वं
नारायण त्वयि न मृष्यति वैदिकः कः।
ब्रह्मा शिवश्शतमखः परमस्स्वराडि
त्येतेऽपि यस्य महिमार्णवविपुषस्ते॥११॥

ब्रह्मा, शिव, इन्द्र और मुक्तात्मा ये सभी ही जिन आपके महिमासागर की तुलना में केवल बिन्दुमात्र जैसे हैं, ऐसे आपकी स्वाभाविक असीम और अत्युच्च प्रभुसत्ता को हे नारायण! कौन ऐसा वैदिक मार्ग का अनुयायी है, जो स्वीकार नहीं करेगा?

कः श्री: श्रियः परमसत्त्वसमाश्रयः कः
कः पुण्डरीकनयनः पुरुषोत्तमः कः।
कस्यायुतायुतशतैककलांशकांशे
विश्वं विचित्रचिदचित्प्रविभागवृत्तम्॥१२॥

श्री लक्ष्मी जी की शोभा किन से है? श्रेष्ठ सत्व का आधार कौन है? पुण्डरीकाक्ष कौन है? पुरुषोत्तम कौन है? किनके कोटि-शतकोटि कला के अंश के एक सूक्ष्म अंश में जड-चेतन बँटा हुआ यह विचित्र विश्वमण्डल टिका हुआ है?

वेदापहारगुरुपातकदैत्यपीडा
द्यापद्विमोचनमहिष्ठफलप्रदानैः।
कोऽन्यः प्रजापशुपती परिपाति कस्य
पादोदकेन स शिवः स्वशिरोधृतेन।॥१३॥

मधुकैटभ दैत्यों ने जब वेदों का अपहरण किया तब आपने हयग्रीव रूप से दैत्यों को मारकर वेदों का उद्धार किया, पंचमुखी ब्रह्मा जी का एक मुख काटने से लगे ब्रह्महत्या के पाप से आपने शिव जी को छुड़ाया तथा शिव जी से मिले वरदान को जाँचने के लिये भस्मासुर ने शिवजी पर ही उसका प्रयोग करना चाहा तब मीठी-मीठी बातों से मोहित कर उसके अपने हाथ से ही उस भस्मासुर को आप ने भस्म करवाया था। इस प्रकार वेदापहार, गुरुपातक, दैत्यपीडा आदि आपत्तियों से छुड़ा कर तथा उत्तम फलों को देकर प्रजापति, ब्रह्मा और पशुपति शंकर जी की रक्षा दूसरा कौन कर सकता है? किन के चरणतीर्थ को अपने शिर पर धारण कर शिव जी शिव कल्याणकारी बने?

कस्योदरे हरविरिञ्चिमुखप्रपञ्चः
को रक्षतीममजनिष्ट च कस्य नाभेः।
क्रान्त्वा निगीर्य पुनरुद्गि रति त्वदन्यः
कः केन चैष परवानिति शक्यशङ्कः॥१४॥

शिवजी, ब्रह्माजी समेत यह सारा प्रपंच (प्रलयकाल में) किस के पेट में रहता है? इसकी रक्षा कौन करता है? किसकी नाभि से इसका पुनः जन्म हुआ? आप के अतिरिक्त इसको दूसरा कौन नाप कर और निगलकर पुन: उगलता है? यह भ्रमित विश्व किसके पराधीन है?

त्वां शीलरूपचरितैः परमप्रकृष्ट
सत्त्वेन सात्त्विकतया प्रबलैश्च शास्त्रैः।
प्रख्यातदैवपरमार्थविदां मतैश्च
नैवासुरप्रकृतयः प्रभवन्ति बोद्धुम्॥१५॥

आप शील से, रूप से, चरित्र से तथा अत्युत्कृष्ट सत्वगुण से सम्पन्न रहते तथा सात्विकता से भरे शास्त्रों के तथा दैव-परमार्थ के विद्वानों के मतों के भी प्रसिद्ध रहते, आसुरी स्वभाव के लोग आप को जानने में समर्थ नहीं होते हैं


उल्लंघितत्रिविधसीमसमातिशायि
सम्भावनं तव परिवढिमस्वभावम्।
मायाबलेन भवतापि निगूह्यमानं
पश्यन्ति केचिदनिशं त्वदनन्यभावाः॥१६॥

देश-काल-वस्तु की तीनों सीमाओं को तथा आपके समान वा आप से अधिक कोई हो सके, इस सम्भावना को भी उल्लंघन करने वाला आपका ईश्वरीय स्वरूप, आप से मायाबल से छिपाये जाने पर भी, आप में अनन्यभाव रखनेवाले कोई विरले जन आपका दर्शन निरन्तर करते रहते हैं

यदण्डमण्डान्तरगोचरं च यद्
दशोत्तराण्यावरणानि यानि च।
गुणाः प्रधानं पुरुषः परं पदं
परात्परं ब्रह्म च ते विभूतयः॥१७॥

ब्रह्माण्ड, तदन्तर्गत प्रपंच, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि के वे उत्तरोत्तर दश-गुणा बढ़ते आवरण तथा सत्व, रज, तमोगुण, प्रकृति, जीववर्ग, परमपद वैकुण्ठ, मुक्त नित्यात्मा-वर्ग तथा ब्रह्मस्वरूप यह सब आपका वैभव है।

वशी वदान्यो गुणवानृजुः शुचि:
मृदुर्दयालुर्मधुरः स्थिरः समः।
कृती कृतज्ञस्त्वमसि स्वभावतः
समस्तकल्याणगुणामृतोदधिः॥१८॥

स्वभाव से ही स्वामी, उदारमना, गुणवान्, सरल, पवित्र, कोमल, दयालु, मधुर, स्थिर, समदर्शी, कार्य करनेवाले, की हुई सेवा को स्मरण रखने वाले, संक्षेप में आप समस्त कल्याण गुणों के सुधासागर हैं।।


उपर्युपर्यब्जभुवोऽपि पूरुषान्
प्रकल्प्य ते ये शतमित्यनुक्रमात्।
गिरस्त्वदेकैकगुणावधीप्सया
सदा स्थिता नोद्यमतोऽतिशेरते॥१९॥

आप के एक-एक गुण का थाह पाने की इच्छा से उपनिषदों ने प्रजापतियों (ब्रह्माओं) को मनुष्यों को रूप में कल्पना कर के ते ये शतम् ते ये शतम् एक का सौ गुणा, उस गुणा का सौ गुणा, उस गुणा का सौ गुणा इस प्रकार अनुक्रम से दसों बार गुणा कर के और इसी क्रम से ऊपर-ऊपर बारम्बार सदा प्रयत्न किया। परन्तु पार पाना सम्भव नहीं दीख रहा है।।


त्वदाश्रितानां जगदुद्भवस्थिति
प्रणाशसंसारविमोचनादयः।
भवन्तिलीलाविधयश्चवैदिका
स्त्वदीयगम्भीरमनोऽनुसारिणः॥२०॥

संसार की सृष्टि करना, रक्षा करना, विनाश करना, मुक्ति देना आदि आपकी लीलाएँ आप के आश्रित जीवों के लिये हीती हैं। वेदोक्त विधियाँ भी आप एवं आप के भक्तों के गम्भीर मन का अनुसरण करने वाली होती है।।


नमो नमो वाङ्मनसातिभूमये
नमो नमो वाङ्मनसैकभूमये।
नमो नमोऽनन्तमहाविभूतये।
नमो नमोऽनन्तदयैकसिन्धवे॥२१॥

वाणी और मन के पकड़ से दूर ऐसे आपको नमस्कार है, वाणी और मन के लिये एकमात्र विषय ऐसे आप को नमस्कार है, अनन्त महावैभवशाली ऐसे आपको नमस्कार है, अनन्त दया के एकमात्र समुद्र ऐसे आप को नमस्कार है, नमस्कार है, साष्टांग प्रणाम है।।


न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी
न भक्तिमाँस्त्वच्चरणारविन्दे।
अकिञ्चनोऽनन्यगतिः शरण्यं
त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये॥२२॥

न मेरी धर्म में निष्ठा है, न मैं अपने स्वरूप को जानता हूँ, न आप के चरण-कमलों में मेरी भक्ति है। न मेरे पास कुछ है और न कोई मेरा आधार ही है। हे शरण देने वाले भगवन्! मैं आपके चरणतलों का ही केवल आश्रित हूँ।


न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि।
सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्द
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे॥२३॥

संसार में ऐसा कोई निन्दनीय काम नहीं है, जो मैंने सहस्रों बार न किया हो। अब जब उनका फल भोगने का समय आया है, तब हे मुकुन्द! और कोई उपाय न देखकर मैं आप के सामने विलाप कर रहा हुँ ।।


निमज्जतोऽनन्तमहार्णवान्त
श्चिराय मे कूलमिवासि लब्धः।
त्वयापि लब्धं भगवन्निदानीम्
अनुत्तमं पात्रमिदं दयायाः॥२४॥

अनन्त भवसागर के अन्दर डूबते मुझको, विलम्ब से ही सही, आप किनारे की तरह मिल गये हैं। हे भगवन्! आप को भी दया का यह सर्वोत्तम पात्र इस समय मिल गया है।।


अभूतपूर्वं मम भावि किं वा
सर्वं सहे मे सहजं हि दुःखम्।
किन्तु त्वदग्रे शरणागतानां
पराभवो नाथ न तेऽनुरूपः॥२५॥

हे नाथ! मेरे जन्म के साथ लगे सब दु:खो को मैं भोग रहा हूँ। न भोगे हुए दुःख भी कदाचित् आगे भोगना पडे तो भी सह लूँगा, परन्तु आप के सम्मुख आश्रय के लिये आये जीवों की उपेक्षा करना आप के स्वरूप के अनुरूप नहीं होगा।।


निरासकस्यापि न तावदुत्सहे
महेश हातुं तव पादपङ्कजम्।
रुषा निरस्तोऽपि शिशुः स्तनन्धयो
न जातु मातुश्चरणौ जिहासति॥२६॥

हे महेश्वर! आप के उपेक्षा करने पर भी, मैं आप के चरणकमलों को नहीं ही छोडूंगा। झुंझलाकर दूर हटाये जाने पर भी, स्तनन्धय (दूध-मुँहा) बालक माता के चरणों को छोड़ने की कभी इच्छा नहीं करता है।


तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे
निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति।
स्थितेऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे
मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते॥२७॥

अमृत के झरने बहाने वाले आप के चरण कमलो में जिसने अपनी आत्मा को लगा दिया है, वह दूसरे वस्तु की कैसे इच्छा करेगा? मधुरस भरे कमल में बैठकर मधुपान करने वाला भौंरा काँटेवाले गन्ध हीन इक्षुरस की ओर ताकता तक नहीं।।


त्वदंघ्रिमुद्दिश्य कदापि केनचिद्
यथा तथा वापि सकृत्कृतोऽञ्जलिः।
तदैव मुष्णात्यशुभान्यशेषतः
शुभानि पुष्णाति न जातु हीयते॥२८॥

आपके चरणों को लक्ष्य करके, कभी भी, जैसे तैसे भी, किसी ने एक बार भी हाथ जोड़ लिया तो उसके सारे अमंगल उसी क्षण नष्टहोकर मंगल की वृद्धि होती है। फिर उसमें कभी न्यूनता नहीं आती।।


उदीर्णसंसारदवाशुशुक्षणिं
क्षणेन निर्वाप्य परां च निर्वृतिम्।
प्रयच्छति त्वच्चरणारुणाम्बुज
द्वयानुरागामृतसिन्धुशीकरः॥२९॥

आप के अरुण-कमल जैसे चरणों में किये प्रेम के अमृत सिन्धु की एक छोटी सी बूँद, बढ़ते हुए संसारताप की पीड़ा को क्षणभर में शान्त कर के परम सुख और सन्तोष को प्रदान करती है।।


विलासविक्रान्तपरावरालयं
नमस्यदार्तिक्षपणे कृतक्षणम्।
धनं मदीयं तव पादपङ्कजं
कदा नु साक्षात्करवाणि चक्षुषा॥३०॥

ऊपर के और नीचे के ऐसे चौदह भुवनों को लीलया नापने वाले तथा नमस्कार करने वालों का दु:ख तत्परता से मिटाने वाले ऐसे आप के चरणारविन्द, जो मेरे सर्वस्व (धन) हैं, उनका मैं नेत्रों से कब दर्शन करूँगा।

कदा पुनः शङ्खरथाङ्गकल्पक
ध्वजारविन्दाङ्कुशवज्रलाञ्छनम्।
त्रिविक्रम त्वच्चरणाम्बुजद्वयं
मदीयमूर्ध्नानमलङ्करिष्यति॥३१॥

हे त्रिविक्रम! शंख, चक्र, कल्पतरु, ध्वज, कमल, अंकुश और वज्र से चिह्नित आप के दोनों चरणकमल मेरे मस्तक को पुनः कब अलंकृत करेंगे?

विराजमानोज्ज्वलपीतवाससं
स्मितातसीसूनसमामलच्छविम्।
निमग्ननाभिं तनुमध्यमुल्लसद्
विशालवक्षःस्थलशोभिलक्षणम्॥३२॥

प्रकाशमान होता हुआ उज्ज्वल पीताम्बर, अलसी के खिले पुष्पों के समान निर्मल श्याम छवि, गहरी नाभि, पतली कमर, दिव्य श्रीवत्सचिह्न से शोभित उन्नत व विशाल वक्षः स्थल ।

चकासतं ज्याकिणकर्कशैः शुभैः
चतुर्भिराजानुविलम्बिभिर्भुजैः।
प्रियावतंसोत्पलकर्णभूषण
श्लथालकाबन्धविमर्दशंसिभिः॥३३॥

धनुष की डोरी के आघात से कठोर बने हुए तथा श्री लक्ष्मी जी के कर्णालंकार, नील कमल पुष्प, कर्ण के आभूषण तथा शिथिल केशापाश इन सब के मर्दन के सूचक उन घुटनों तक लटकते (आजानुबाहु) चार परम सुन्दर भुजाओं से शोभायमान,

उदग्रपीनांसविलम्बिकुण्डला
लकावलीबन्धुरकम्बुकन्धरम्।
मुखश्रिया न्यक्कृतपूर्णनिर्मला
मृतांशुबिम्बाम्बुरुहोज्ज्वलश्रियम् ॥३४॥

उन्नत व पुष्ट कन्धों तक लटकने वाले कुण्डल और केश पाशों के कारण सुन्दर लगता आपका शंख जैसा गला, अमृत किरण बरसाने वाले पूर्ण व निर्मल चन्द्रबिम्व की प्रभा और कमल के उज्ज्वल शोभा को भी फीका कर देने वाली आप की मनोहारिणी मुख कान्ति, वैसे ही

प्रबुग्धमुग्धाम्बुजचारुलोचनं
सविभ्रमभ्रूलतमुज्ज्वलाधरम्।
शुचिस्मितं कोमलगण्डमुन्नसं
ललाटपर्यन्तविलम्बितालकम्॥३५॥

रमणीय व विकसित कमल जैसे सुन्दर नेत्र, लता जैसी विलासपूर्ण भोहें, उज्ज्वल ओष्ठ, निर्मल मुस्कान, कोमल कपोल (गाल) तीखी नाक, ललाट तक लटकते केश, इन से शोभायमान और

स्फुरत्किरीटाङ्गदहारकण्ठिका
मणीन्द्रकाञ्चीगुणनूपुरादिभिः।
रथांगशङ्खासिगदाधनुर्वरै:
लसत्तुलस्या वनमालयोज्ज्वलम्॥३६॥

जगमगाते मुकुट, भुजबन्द, चन्द्र-हार, कण्ठी, कौस्तुभ-मणि कमरपट्टा, कटिसूत्र, नूपुर, आदि आभूषणों से, तथा चक्र, शंख, तलवार, गदा, धनुष, इन श्रेष्ठ आयुधों से, तथा खिली तुलसी से युक्त वनमाला से प्रकाशमान, ऐसे आप ने

चकर्थ यस्या भवनं भुजान्तरं
तव प्रियं धाम यदीयजन्मभूः।
जगत्समस्तं यदपाङ्गसंश्रयं
यदर्थमम्भोधिरमन्थ्यबन्धि च ॥३७॥

अपने वक्षःस्थल को जिन का निवास स्थान बनाया, जन्म स्थान आपका प्रिय निवास स्थान बना, जिनके नेत्र कटाक्ष के लिये सारा संसार लालायित है और जिनके लिये आपने समुद्र को मथा भी (समुद्र मन्थन किया) और बाँधा भी (रामावतार में सेतु बन्धन किया) जिनका तथा जो

स्ववैश्वरूप्येण सदानुभूतया
प्यपूर्ववद्विस्मयमादधानया।
गुणेन रूपेण विलासचेष्टितैः
सदा तवैवोचितया तव श्रिया॥३८॥

अपने विविध रूपों से सदा अनुभव देती हुई, अपूर्व आश्चर्य के द्वारा तथा गुणों से, रूप से हास-परिहास चेष्टाओं से नित्य आप के ही अनुरूप रहती हैं, उन आपकी प्रिया श्री श्रीजी के

तया सहासीनमनन्तभोगिनि
प्रकृष्टविज्ञानबलैकधामनि।
फणामणिवातमयूखमण्डल
प्रकाशमानोदरदिव्यधामनि॥३९॥

साथ आप उन शेष जी के उदर(पेट) भाग को अपना दिव्य मन्दिर बनाकर उस पर विराजमान हैं, जो उत्कृष्ट ज्ञान और बल के एकमात्र निधान हैं, हजार फणों के मणि समूह के किरण मण्डल से अनन्त देदीप्यमान हैं, तथा जो

निवासशय्यासनपादुकांशुको
पधानवर्षातपवारणादिभिः।
शरीरभेदैस्तवशेषतां गतै:
यथोचितं शेष इतीर्यते जनैः॥४०॥

निबास (मन्दिर), शय्या, सिंहासन, पादुका, वस्त्र, तकिया, वर्षा-ताप से निवारण करने वाला छत्र आदि अनेक रूपों से आप की सेवा में लगे रहने से वास्तविक में लोगों द्वारा शेष कहे जाते हैं। ऐसे श्री शेष जी से तथा

दासः सखा वाहनमासनं ध्वजो
यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयः।
उपस्थितं तेन पुरो गरुत्मता
त्वदंघ्रिसम्मर्दकिणाङ्कशोभिना॥४१॥

आपके चरणों के घर्षण से पड़े व्रण चिन्ह से जिनका अंग शोभा पा रहा है तथा सेवक, सखा, (मित्र), वाहन, पीठ, ध्वज, वितान, (छत), पंखा बन कर जो आप के सम्मुख उपस्थित रहते हैं, उन वेदस्वरूप श्री गरुड जी से तथा

त्वदीयभुक्तोज्झितशेषभोजिना
त्वया विसृष्टात्मभरेण यद्यथा।
प्रियेण सेनापतिना निवेदितं
तथानुजानन्तमुदारवीक्षणैः।।४२॥

आपके भोजन पा लेने के बाद बचे हुए अवशिष्ट प्रसाद को पाने वाले, आप से सौंपे गये जो जैसा भी कार्यभार हो वह अपने ऊपर लेने वाले, और उनके दिये प्रस्ताव का आपके द्वारा उसी प्रकार उदार दृष्टि से अनुमोदन प्राप्त करने वाले, ऐसे प्रिय सेनापति विष्वक्सेन जी से तथा

हताखिलक्लेशमलैः स्वभावतः
सदानुकूल्यैकरसैस्तवोचितैः।
गृहीततत्तत्परिचारसाधनै:
निषेव्यमाणं सचिवैर्यथोचितम्॥४३॥

स्वभाव से ही जो सब कष्ट और मलों से मुक्त हैं (परिशुद्ध हैं) तथा अनुकूल व एकाग्र भाव होकर जो अपनी-अपनी उचित सेवा सामग्री को लेकर सदा आपकी सुयोग्य सेवा में लगे हैं, उन पार्षदों से मन्त्रियों से सेवित ऐसे आप

अपूर्वनानारसभावनिर्भर
प्रबुद्धया मुग्धविदग्धलीलया।
क्षणाणुवत्क्षिप्तपरादिकालया
प्रहर्षयन्तं महिषीं महाभुजम्॥४४॥

महाभुजधारी भगवान्, जो क्षण के भी अति अल्प भाव जैसी बीती लगने वाली, परन्तु वस्तुतः अन्यन्त सुदूर आदि काल से चली आ रही हुई अनेक नये-नये रसों से और भावों से भरी अत्यन्त प्रौढ, सुन्दर व चतुर लीलाओं से श्रीमहालक्ष्मी जी को अत्यन्त आनन्द देने वाले,

अचिन्त्यदिव्याद्भुतनित्ययौवन
स्वभावलावण्यमयामृतोदधिम्।
श्रियः श्रियं भक्तजनकजीवितं
समर्थमापत्सखमर्थिकल्पकम्॥४५॥

कल्पनातीत, दिव्य, अद्भुत और नित्य तारुण्य से सम्पन्न, स्वभाव और सुन्दरता के सुधा सागर, श्री जी की शोभा बढाने वाले, भक्तों के एकमात्र जीवन, समर्थ, संकट में सखा तथा याचकों के लिये कल्पवृक्ष, ऐसे

भवन्तमेवानुचरन्निरन्तरं
प्रशान्तनि:शेषमनोरथान्तरः।
कदाहमैकान्तिकनित्यकिङ्करः
प्रहर्षयिष्यामि सनाथजीवितः॥४६॥

आपको ही निरन्तर भजता हुआ तथा अन्य सब कामनाओं से मुक्त बना, एकान्तिक नित्य सेवक हो कर और अपने जीवन को सनाथ बना कर मैं आप को कब प्रसन्न करूँगा? कब आपका मुखोल्लास करूँगा?

धिगशुचिमविनीतं निर्दयं मामलज्जं
परमपुरुष! योऽहं योगिवर्याग्रगण्यैः।
विधिशिवसनकाद्यैर्ध्यातुमत्यन्तदूरं
तव परिजनभावं कामये कामवृत्तः॥४७॥

हे भगवन्! मुझे धिक्कार है, क्यों कि मैं स्वेच्छाचारी तो हूँ ही, साथ ही अपवित्र, उद्दण्ड, निर्दय और निर्लज्ज भी हूँ। ऐसा होते हुए भी मैं आप के चरणों का सेवक बनने की कामना कर रहा हूँ, जिनका ध्यान करना योगीश्वरों में अग्रगण्य ऐसे ब्रह्मा जी, शिव जी, सनकादिकों के लिये भी अत्यन्त दूर की बात है।।

अपराधसहस्रभाजनं
पतितं भीमभवार्णवोदरे।।
अगतिं शरणागतं हरे
कृपया केवलमात्मसात्कुरु॥४८॥

हजारों अपराधों का पात्र मैं, भयानक भवसागर के भीतर डूब रहा हूँ। निकलने का कोई उपाय न देख कर आपकी शरण में आया हूँ। (हे हरे! कृपा करके आप मुझे केवल अपना बना लीजिए।

अविवेकघनान्धदिङ्मुखे
बहुधा सन्ततदुःखवर्षिणि।
भगवन् भवदुर्दिने पथः
स्खलितं मामवलोकयाच्युत॥४९।।

हे भगवन्! अज्ञान के घनघोर अन्धकार में अनेक प्रकार के दु:खों की निरन्तर वर्षा में दिशा-शून्य हुआ मैं संसार के दुर्दिन में भटक चला हूँ। हे अच्युत! मेरी इस अवस्था को आप देखिये।।

न मृषा परमार्थमेव मे
श्रृणु विज्ञापनमेकमग्रतः।
यदि मे न दयिष्यसे ततो
दयनीयस्तव नाथ दुर्लभः।।५०॥

यह कथन असत्य नहीं है, यह यथार्थ में ही सत्य है। आप के समक्ष की जा रही मेरी यह विज्ञापना (प्रार्थना) सुनिये! यदि आप मुझ पर दया नहीं करेंगे तो हे नाथ! आप को दया करने योग्य दूसरा व्यक्ति मिलना असम्भव है।।

तदहं त्वदृते न नाथवान्
मदृते त्वं दयनीयवान्न च।
विधिनिर्मितमेतदन्वयं
भगवन् पालय मास्म जीहपः॥५१॥

हे भगवन्! आप के बिना जैसे मैं सनाथ नहीं हूँ, उसी प्रकार आप भी मेरे विना दयालु नहीं बन पायेंगे। क्यों कि विधाता के ही निर्माण किया हुआ यह सम्बन्ध है । इस लिये बिना मुँह मोड़े आपको मेरा पालन करना है।।

वपुरादिषु योपि कोऽपि वा
गुणतोऽसानि यथातथाविधः।
तदयं तव पादपद्मयो-
रहमचैव मया समर्पितः।।५२॥

शरीर, मन, वाणी से मैं जो कोई भी होऊँ अथवा गुणों से जैसा-तैसा भी होऊँ, आज तो मैंने यह सब आप के पदपंकजों में समर्पण कर दिया है।।

मम नाथ यदस्ति योऽस्म्यहं
सकलं तद्धि तवैव माधव।
नियतः स्वमिति प्रबुद्धधी
रथवा किन्नु समर्पयामि ते॥५३॥

किन्तु, हे नाथ! यह समर्पण कैसा? मैं अथवा मेरा ऐसा जो मैंने मान रखा है, वह सब तो निश्चित ही आप का है। हे माधव! अब मुझे ज्ञान हुआ है कि समर्पण की यह बात (चर्चा) सारहीन है। मेरे पास क्या है जो समर्पण की बात करूँ?

अवबोधितवानिमां यथा
मयि नित्यां भवदीयतां स्वयम्।
कृपयैवमनन्यभोग्यता
भगवन् भक्तिमपि प्रयच्छ मे॥५४॥

हे भगवन्! मैं सदा के लिये आप का ही हूँ, यह स्वरूप ज्ञान जैसे आपने मुझ में जगाया, उसी प्रकार मैं आप का अनन्य रूप से भोग्य बनूँ ऐसी भक्ति भी कृपा करके आप मुझे दीजिये।।

तव दास्यसुखैकसङ्गिना
भवनेष्वस्त्वपि कीटजन्म मे।
इतरावसथेषु मा स्म भूद्
अपि मे जन्म चतुर्मुखात्मना।।५५॥

आप के दास्य सुख का अनुभव लेने वाले भक्तों के घरों में भले ही मुझे कीड़े का ही जन्म मिले, अन्यत्र चतुर्मुख ब्रह्मा जी का भी जन्म मुझे नहीं चाहिए।

सकृत्त्वदाकारविलोकनाशया
तृणीकृतानुत्तमभुक्तिमुक्तिभिः।
महात्मभिर्मामवलोक्यतां नय
क्षणेऽपि यद्विरहोऽतिदुःसहः॥५६॥

आप के केवल एक बार के दर्शन की लालसा से जिन्होंने उत्तमोत्तम भोग और मोक्ष सुख को भी तृण(घास) ही माना, और जिनके क्षण भर के वियोग को सहन करना आप को अति कठिन पड़ता है, वे महात्मा लोग मुझ पर कृपा दृष्टि करें, ऐसा आप उपाय कीजिये।।

न देहं न प्राणान्न च सुखमशेषाभिलषितं
न चात्मानं नान्यत्किमपि तव शेषत्वविभवात्।
बहिर्भूतं नाथ क्षणमपि सहे यातु शतधा
विनाशं तत्सत्यं मधुमथन विज्ञापनमिदम्॥५७॥

हे नाथ! आपके शेषत्व के वैभव को छोड़ कर न शरीर, न प्राण, न जिसकी सबको अभिलाषा है वह सुख, न आत्मा, न अन्य किसी भी वस्तु को मैं एक क्षण के लिये भी सहन कर सकता हूँ। उनका शतधा (सौ-सौ टुकडों में) नाश हो जाये। हे मधुसूदन! यह मेरी नितान्त सत्य प्रार्थना है।।

दुरन्तस्यानादेरपरिहरणीयस्य महतो
विहीनाचारोऽहं नृपशुरशुभस्यास्पदमपि।
दयासिन्धो बन्धो निरवधिकवात्सल्यजलधे
तव स्मारं स्मारं गुणगणमितीच्छामि गतभीः॥५८॥

हे दयासिन्धो! जिसका न आदि है, न अन्त है और न जिसका परिहार ही हो सकता है, ऐसे महान् हीन आचरणों वाला मैं एक नर-पशु हूँ, अमंगल का घर भी हूँ। फिर भी हे बन्धो! हे अपार वात्सल्य के समुद्र! आप के गुणों का बारम्बार स्मरण कर के ही मैं निर्भय हो कर इस शेषत्व वैभव की इच्छा कर रहा हूँ।।

अनिच्छन्नप्येवं यदि पुनरपीच्छन्निव रजः
तमश्छन्नश्छद्मस्तुतिवचनभङ्गीमरचयम्।
तथापीत्थं रूपं वचनमवलम्ब्यापि कृपया
त्वमेवैवम्भूतं धरणिधर मे शिक्षय मनः॥६०॥

रजोगुण, तमोगुण से भरे मैंने इच्छा न रहते हुए भी, इच्छा हुई। ऐसा दिखलाते हुए, कपटपूर्ण भाव से आपका यह स्तोत्र रच डाला। तथापि इस छद्मी के इस प्रकार के स्तोत्र को स्वीकार कर के ही, पृथ्वी का उद्धार करने वाले हे प्रभो! इस प्रकार व्यवहार करने वाले मेरे इस मन का कृपा करके आप स्वयं ही सुधार कीजिये।।

पिता त्वं माता त्वं दयिततनयस्त्वं प्रियसुहृत्
त्वमेव त्वं मित्रं गुरुरपि गतिश्चासि जगताम्।
त्वदीयस्त्वद्भृत्यस्तव परिजनस्त्वद्गतिरहं
प्रपन्नश्चैवं सत्यहमपि तवैवास्मि हि भरः॥६१॥

आप ही संसार के पिता, माता, प्रियपुत्र, प्रियसखा, मित्र, गुरु और आधार हैं । यह दास आप का ही है, आप का ही सेवक, परिजन, आश्रित, प्रपन्न, शरणागत होने से मेरा भार आप के ऊपर ही है।।

जनित्वाहं वंशे महति जगति ख्यातयशसां
शुचीनां युक्तानां गुणपुरुषतत्त्वस्थितिविदाम्॥
निसर्गादेव त्वच्चरणकमलैकान्तमनसाम्
अधोधः पापात्मा शरणद निमज्जामि तमसि॥६२॥

समस्त संसार में जिनकी कीर्ति फैली है, जो विशुद्ध योगी हैं, भगवत्तत्व के ज्ञानी है, स्वरूप से ही जो आपके चरणकमलों में निरन्तर मन लगाये हुये हैं, उन पितामह श्री नाथमुनि जी के वंश में जन्म लेकर भी, हे आश्रय देनेवाले भगवन्! मैं पापात्मा अन्धकार में नीचे ही डूबा जा रहा हूँ।।

अमर्यादः क्षुद्रश्चलमतिरसूयाप्रसवभूः
कृतघ्नो दुर्मानी स्मरपरवशो वञ्चनपरः।
नृशंसः पापिष्ठः कथमहमितो दुःखजलधेः
अपारादुत्तीर्णस्तव परिचरेयं चरणयोः॥६३॥

हे भगवन्! मैं मर्यादा-शून्य, क्षुद्र, चंचल-बुद्धि, ईर्ष्या रखने वाला, कृतघ्न(उपकार को भूलने वाला), दुरभिमान रखने वाला, लम्पट, कपटी, दुष्ट और पापी हूँ। इस अपार दु:ख सागर से पार हो कर मैं कैसे आप के चरणों की सेवा कर सकूँगा।।

रघुवर यदभूस्त्वं तादृशो वायसस्य
प्रणत इति दयालुर्यस्य चैद्यस्य कृष्ण।
प्रतिभवमपराद्धुर्मुग्धसायुज्यदोऽभूः
वद किमु पदमागस्तस्य तेऽस्ति क्षमायाः॥६४॥

हे रघुवर! आपके श्री चरणों में प्रणाम करने से ही आप उस दुष्ट जयन्त काक के लिये दयालु बने। हे सरल-स्वभाव के श्रीकृष्ण! प्रति जन्म में अपराध करने वाले चेदिराज शिशुपाल के लिये भी आप सायुज्य मुक्ति को देने वाले बने। कहिये तो ऐसे आपके क्षमागुण के सामने क्या किसीका कोई अपराध है?

ननु प्रपन्नः सकृदेव नाथ
तवाहमस्मीति च याचमानः।
तवानुकम्प्य स्मरत: प्रतिज्ञां
मदेकवर्ज्यं किमिदं व्रतं ते॥६५।।

हे नाथ! आपकी श्री रामाययणजी की यह प्रतिज्ञा स्मरण कीजिये, जिसमें आपने कहा था कि कोई शरणागत हे नाथ! मैं आप का ही हूँ यह केवल एक बार भी कह दे (सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम) तो आप उस पर कृपा कर देते हैं तो भला यह आप की प्रतिज्ञा मुझ अकेले को छोड़ कर है क्या?

अकृत्रिमत्त्वच्चरणारविन्द
प्रेमप्रकर्षावधिमात्मवन्तम्।
पितामहं नाथमुनिं विलोक्य
प्रसीद मद्वृत्तमचिन्तयित्वा॥६६॥

मेरे आचरण कैसे हैं यह न देखते हुए आपके चरण कमलों में हृदय से अतिशय प्रेम करने वाले मेरे आत्मज्ञानी पितामह श्रीनाथमुनि स्वामी जी की ओर देख कर ही आप मेरे ऊपर प्रसन्न होइये।।

यत्पदाम्भोरुहध्यानविध्वस्ताशेषकल्मषः।
वस्तुतामुपयातोऽहं यामुनेयं नमामि तम्॥६६॥

जिनके चरण कमलों का ध्यान करने से मेरे समस्त पाप नष्ट हो गये तथा मैंने मेरे वास्तविक स्वरूप को पाया, उन श्री यामुनाचार्य स्वामी जी को मैं नमस्कार करता हूँ।।

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